देश में आज कोरोना संकट के बीच ईद उल-अज़हा (Eid al-Adha) का त्योहार धूम धाम के साथ मनाया जा रहा है। बकरीद के इस मौके पर मस्ज़िदों में भारी संख्या में लोग नमाज़ पढ़ने पहुंच रहे हैं। हालांकि, इस इस दौरान कोरोना गाइडलाइन्स का भी ख्याल रखा जा रहा है।
रमजान की ईद के 70 दिन बाद बकरीद मनाई जाती है। बकरीद को ईद-उल-अजहा या ईद-उल-जुहा भी कहा जाता है। इस दिन नमाज अदा कर बकरे की कुर्बानी दी जाती है। कुर्बानी पर गरीबों का खास ख्याल रखा जाता है। बलि का मांस तीन भागों में बनाया जाता है। जिसका एक हिस्सा गरीब, दूसरा हिस्सा दोस्तों, रिश्तेदारों में बांट दिया जाता है। तीसरा भाग अपने लिए रखा गया है।
बकरीद पर्व मनाने के पीछे कुछ ऐतिहासिक किंवदंती भी है। इसके अनुसार हजरत इब्राहिम को अल्लाह का बंदा माना जाता हैं, जिनकी इबादत पैगम्बर के तौर पर की जाती है, जिन्हें इस्लाम मानने वाले हर अनुयायी अल्लाह का दर्जा प्राप्त है। एक बार खुदा ने हजरत मुहम्मद साहब का इम्तिहान लेने के लिए आदेश दिया कि हजरत अपनी सबसे अजीज की कुर्बानी देंगे, तभी वे खुश होंगे। हजरत के लिए सबसे अजीज उनका बेटा हजरत इस्माइल था, जिसकी कुर्बानी के लिए वे तैयार हो गए।
जब कुर्बानी का समय आया तो हजरत इब्राहिम ने अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली और अपने बेटे की कुर्बानी दी, लेकिन जब आँखों पर से पट्टी हटाई तो बेटा सुरक्षित था। उसकी जगह इब्राहीम के अजीज बकरे की कुर्बानी अल्लाह ने कुबूल की। हजरत इब्राहिम की इस कुर्बानी से खुश होकर अल्लाह ने बच्चे इस्माइल की जान बक्श दी और उसकी जगह बकरे की कुर्बानी को कुबूल किया गया। तभी से बकरीद को बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा चली आ रही है।
कुर्बानी का मतलब होता है कि इंसान को हमेशा दूसरों की भलाई के लिए काम करना चाहिए। बकरीद लोगों को सच्चाई की राह में अपना सबकुछ कुर्बान करने का नाम है। जो इंसान दूसरे के लिए मन में प्रेम और सदाचार रखता है, वो हमेशा खुदा के करीब होता है।