मुहर्रम वह महीना है जिसमें पैगंबर मुहम्मद के नाती हजरत हुसैन शहीद हुए थे। मुस्लिमों के बीच मान्यता है कि वह इस्लाम की रक्षा के लिए शहीद हुए थे। मुस्लिम समुदाय के पाक महीनों में से एक मुहर्रम 1 सितंबर से शुरू हुआ है। मुहर्रम से इस्लामिक कैलेंडर का नया साल शुरु होता है। इसे हिजरी भी कहते हैं और मुहर्रम से ही हिजरी सन् की शुरुआत होती है। इस्लाम में 4 महीनों को पवित्र माना जाता है। उनमें से एक मुहर्रम भी है।
इसके अलावा मुस्लिम समुदाय में 3 महीने जुल्कादाह, जुलहिज्जा और रजब भी पवित्र होते हैं। मान्यता है कि खुद पैगंबर मुहम्मद ने इन 4 महीनों को पवित्र घोषित किया था। ऐसा नहीं है कि इन 4 महीनों के अलावा बाकी महीने पवित्र नहीं होते। बल्कि मुस्लिमों के लिए सबसे पाक महीना रमजान होता है। मगर इन 4 महीनों को मुस्लिम समुदाय ज्यादा पवित्र मानते हैं।
ऐसे तय होती है मुहर्रम की तारीख
इस्लामी और ग्रेगोरियन कैलेंडर की तारीखें अलग-अलग होने के कारण मुहर्रम की तारीख हर साल अलग-अलग होती है। इसकी वजह यह है कि इस्लामी कैलेंडर में चंद्रमा को आधार मानकर तारीखें तय की जाती हैं। साल 2019 में मुर्हरम 1 सितंबर से शुरू हुआ है। जानें कर्बला का इतिहास और मुहर्रम का मातम से कैसा संबंध मुहर्रम में रोजे रखने का महत्व ऐसा नहीं है कि रोजे केवल रमजान के महीने में ही रखे जाते हैं।
बल्कि मुहर्रम में भी रोजे रखने की परंपरा है। हालांकि मुहर्रम में रोजे रखना प्रत्येक मुसलमान के लिए अनिवार्य नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि इस महीने में रोजे रखने वालों को काफी सवाब (पुण्य) मिलता है।
इसलिए मनाया जाता है मुहर्रम?
उन दिनों उमैया वंश के संस्थापक मुआबिया के बटे यजीद ने पिता की मृत्यु के बाद खुद को इस्लामी जगत का खलीफा घोषित कर दिया था। वह एक क्रूर शासक था। उसने हजरत मुहम्मद के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को अपनी खिलाफत स्वीकारने का न्योता दिया जिसे हुसैन ने ठुकरा दिया था।
उधर कुछ लोग यजीद के खिलाफ थे, उनलोगों ने हुसैन को संदेश भेजा के वे लोग यजीद के खिलाफ हैं और हुसैन को उनलोगों का नेतृत्व करना चाहिए।
सिया सुन्नी के बीच मुहर्रम में अंतर
वे लोग हुसैन को खलीफा मानने को तैयार हैं। उनलोगों की बात मानकर जब हुसैन खलीफा बनने की प्रक्रिया पूरी करने गए तो यजीद की सेना से उनका इराक में संघर्ष हुआ। इराक के कर्बला नाम की जगह पर अपने परिवार और दोस्तों के साथ हुसैन शहीद हो गए। यह घटना मुहर्रम के महीने की ही है। हुसैन मुहर्रम की 10वीं तारीख को शहीद हुए थे। इसी याद में हर साल 10 मुहर्रम को मुस्लिम समुदाय के लोग मातम मनाते हैं। सिया सुन्नी के बीच मुहर्रम में अंतर मुहर्रम खुशियों का नहीं बल्कि मातम मनाने का त्योहार है। क्योंकि मुहर्रम महीन के दसवें दिन हजरत मुहम्मद साहब के नाती हुसैन अली अपने 72 साथियों के साथ कर्बला के मैदान में शहीद हुए थे।
इस गम के त्योहार को मुसलिम समुदाय के दो वर्ग शिया और सुन्नी अलग-अलग तरीके से मनाते हैं।शिया समुदाय के लोग मुहम्मद साहब के दामाद और चचेरे भाई हजरत अली और उनके नाती हुसैन अली को खलीफा और अपने करीब मानते हैं। शिया समुदाय के लोग पहले मुहर्रम से 10 वें मुहर्रम यानी अशुरा के दिन तक मातम मनाते हैं। इस दौरान शिया समुदाय के लोग रंगीन कपड़े और श्रृंगार से दूर रहते हैं। मुहर्रम के दिन यह अपना खून बहाकर हुसैन की शहादत को याद करते हैं। सुन्नी समुदाय के लोग अपना खून नहीं बहाते हैं। यह ताजिया निकालकर हुसैन की शहादत का गम मनाते हैं। यह आपस में तलवार और लाठी से कर्बला की जंग की प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ते हैं। इस समुदाय के लोगों में रंगीन कपड़े पहनने को लेकर किसी तरह की मनाही नहीं है।