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गढ़िया पहाड़ में बेहद खास होता है होलिका दहन, 700 साल पुरानी अनोखी परंपरा आज भी है कायम, जानिए इस अनोखे रिवाज के बारे में… 

Holika Dahan In Gadhiyapahad: 
कांकेर। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में होलिका दहन की 14वीं सदी यानी 700 साल पुरानी बहुत ही अनोखी और खास परंपरा है। यहां होली के पहले दिन होलिका दहन गढ़िया पहाड़ पर किया जाता है, जो कि बहुत प्रसिद्ध है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं इस परंपरा के बारे में और भी बहुत कुछ खास…
कांकेर जिले से लगे गढ़िया पहाड़ का इतिहास हजारों साल पुराना है। जमीन से करीब 660 फीट ऊंचे इस पहाड़ पर सोनई-रुपई नाम का एक तालाब है, जिसका पानी कभी सूखता नहीं है। इस तालाब की खासियत यह भी है कि सुबह और शाम के वक्त इसका आधा पानी सोने और आधा चांदी की तरह चमकता है।
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गढ़िया पहाड़ पर होली के पहले दिन होलिका दहन किया जाता है वहां से पैरे की मोटी रस्सी में आग लगाकर पुजारी प्रकाश भंडारी पैदल चलकर पैलेस पहुंचते हैं। इसी आग से पैलेस में होलिका दहन किया जाता है। फिर कांकेर पैलेस से होलिका की आग ले जाकर लोग अपने वार्डों में होलिका दहन करते हैं।
ऐतिहासिक प्रथा की कहानी
14वीं सदी में जगन्नाथ पुरी के राजपरिवार के वीर कन्हार देव को चर्म रोग हो गया था। उनके उपचार के लिए किसी वैद्य से संपर्क किया गया। उस वैद्य ने उन्हें चर्मरोग से निदान के लिए कांकेर से लगे सिहावा स्थित श्रृंगी ऋषि तपोवन जाने सलाह दी। यहां पहुंचकर उन्होंने महानदी के उद्गम स्थल में डुबकी लगाई। यहां के पवित्र जल के प्रभाव से उनका चर्मरोग दूर हो गया।
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सिहावा के लोगों अनुरोध पर उन्होने सिहावा में राजधानी बनाई। उनकी तीसरी पीढ़ी के राजा तानु देव ने कांकेर के गढ़ किले को फतह किया और यहां राजधानी बनाई। बता दें कि गढ़िया पहाड़ पर देवी देवताओं का वास माना जाता है। नए राजा के समय से ही इस स्थल पर होलिका दहन शुरू किया गया। पुराने समय से चली आ रही इस परंपरा को शहर के बुजुर्ग लोग जिंदा रखे हुए हैं।
बता दें कि अभी वर्तमान में कांकेर के महाराजा डाॅ. आदित्य प्रताप देव है। उन्होंने बताया कि गढ़िया पहाड़ में हाेलिका दहन करने की परंपरा है। यहां की पवित्र अग्नि से पैलेस और फिर पूरे शहर में होलिका दहन इस विश्वास के साथ करते हैं कि इससे नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।

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