नई दिल्ली: भारतीय शादियों में ना जाने कितनी ही रस्में होती हैं जिनमे से एक रस्म है बारात के वक्त दूल्हे का घोड़ी चढ़ना। लेकिन क्या आपने मन में कभी यह सवाल आया है की शादी के वक्त दूल्हा घोड़ी पर ही क्यों बैठता है घोड़े पर कयो नहीं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर काफी कम लोगों को ही पता होगा । क्यो विवाह में घोड़ी के जगह पर किसी और सवारी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
आइये आज हम आपको इस सवाल का जवाब देते हैं जान प्राचीनकाल में हमारे यहाँ शादियां हुआ करती थीं तो उस समय दुल्हन के लिए दूल्हे को अपनी वीरता का प्रदर्शन कर लड़ाईयां लड़नी होती थी। आपने शास्त्रों में कई बार ऐसे प्रसंग देखे होंगे। जब दुल्हे को दुल्हन के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी थी।
रामायण के अनुसार जब सीता जी का स्वयंवर रचा जा रहा था तब वहां पर मौजूद सभी राजाओं ने ऐड़ी चोटी का ताम लगा लिया लेकिन धनुष को उठाना तो दूर की बात है कोई उसे हिला भी नहीं पा रहा था। लेकिन जैसे ही श्रीराम ने धुनष को तोड़ा और सीता जी को वरमाला डालने के लिए आगे बढ़े तभी वहां मौजूद राजाओं ने अपनी-अपनी तलवारें निकाल ली और श्रीराम भी उनलोगों से युद्ध करने को तत्पर हो गए तभी वहां परशुराम पहुंचे और वहां मौजूद लोगो को ज्ञात हुआ की श्रीराम से युद्ध करना खुद की मृत्यु को बुलाने के बराबर है।
आपको बता दें की भगवान श्रीकृष्ण का प्रथम विवाह रुकमणि जी से हुआ था तब उस वक्त भी उन्हें युद्ध करना पड़ा था। शायद इन्हीं सब कारणों से दूल्हे घोड़ी पर बैठकर शादी के लिए जाते थे। उस समय में घोड़ी को वीरता और शौर्य का प्रतिक माना जाता था क्योंकि किसी भी जंग में घोड़े विशेष भूमिका निभाया करते थे। बदलते समय के साथ स्वयंवर, लड़ाईयों और युद्ध धीरे धीरे ख़त्म हो गए। आज के आधुनिक जीवनशैली में रमे लोग घोड़ी को शगुन का प्रतीक मानते हैं और दुल्हे को उस पर बैठते हैं।
कुछ और अन्य मान्यताओं की मने तो घोड़ी बुद्धिमान, दक्ष और चालाक जानवर होती है। जिस पर केवल स्वस्थ व्यक्ति ही सवारी कर सकता है। इसलिए घोड़ी की बाग-डोर को संभालना इस बात का प्रतीक है की दुल्हा परिवार की डोर को संभाल कर रख सकता है। इसलिए दूल्हा हमेशा दुल्हन को लेने घोड़ी में जाता है।
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