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जब कार्ल मार्क्स के पोते ने की थी सावरकर की पैरवी, तो भारत के मार्क्सवादियों द्वारा उनका विरोध कितना तर्कसंगत

@AdityaTripathi : विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है- ‘हिंदुत्व’ के पैरोकार होने के कारण भारत में सतत मार्क्सवादियों के निशाने पर रहे हैं.
मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों व इतिहासकारों ने उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर भी लगातार सवाल उठाए और सावरकर को नाज़ीवाद व फासीवाद से जोड़ने की भी भरपूर कोशिश की. पर उस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बारे में वे क्या कहना चाहेंगे जब कार्ल मार्क्स के पोते ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी.
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इस घटनाक्रम की शुरुआत तब हुई जब सावरकर को अंग्रेजी सरकार द्वारा ‘मोरिया’ नामक एक जहाज में समुद्र के रास्ते भारत लाया जा रहा था. सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए लंदन में गिरफ्तार कर उन्हें इस जहाज द्वारा भारत में उन पर मुकदमा चलाने के लिए बंबई (अब मुंबई) भेजा रहा था.

 

8 जुलाई 1910 को यह जहाज फ्रांस के मार्सेई नामक शहर के पास था. सावरकर ने अवसर पाते ही समुद्र में छलांग लगा दी और कई मील तैरकर वह फ्रांस के तट पर आ पहुंचे. ब्रिटिश पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंच कर ‘चोर-चोर’ का शोर मचा दिया और सावरकर को चोर बताकर धोखे से वापिस जहाज पर ले आए. बाद में जब पता चला कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी हैं तो फ्रांसीसी सरकार ने आपत्ति जताई व ब्रिटेन से सावरकर को फ्रांस को वापिस लौटाने को कहा. ब्रिटेन ने यह बात मानने से इंकार कर दिया और यह विवाद नीदरलैंड में हेग नामक जगह पर स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच गया जहां दो देशों के बीच कानूनी विवादों का निपटारा होता है.
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सावरकर को लेकर हेग में इस मुकदमें में दलीलें 14 फरवरी, 1911 से शुरू हुईं और 17 फरवरी, 1911 को समाप्त हुईं. फैसला 24 फरवरी, 1911 को ब्रिटेन के पक्ष में दिया गया. अंग्रेजी हुकूमत ने इस जीत का फायदा उठाते हुए भारत में सावरकर को काला पानी की सजा दी और उन्हें अंडमान में सेल्युलर जेल भेज दिया गया.
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अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने बाद में ‘मेरा आजीवन कारावास ‘ पुस्तक भी लिखी जिसमें वहां दी गई यातनाओं का लोमहर्षक विवरण है.
बहरहाल बात करते हैं हेग में हुए इस मुकदमे की. इस मामले में सावरकर की ओर से पैरवी करने वाले कोई और नहीं बल्कि मार्क्सवाद की विचारधारा के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के पोते थे. उनका नाम था जीन-लॉरेंट-फ्रेडरिक लोंगुएट (1876-1938).
लोंगुएट स्वयं समाजवादी राजनीतिज्ञ और पत्रकार थे, जो न केवल अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सावरकर का बचाव करने के लिए खड़े हुए बल्कि उन्होंने सावरकर की बहादुरी, देशभक्ति और प्रखर लेखन के लिए उनकी खूब प्रशंसा भी की.
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लोंगुएट का जन्म लंदन में चार्ल्स और जेनी लॉन्गुएट के घर हुआ था. उनका परिवार बाद में फ्रांस चला आया. जेनी, कार्ल मार्क्स की बेटी थी. जीन लॉन्गुएट ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और एक वकील के रूप में योग्यता हासिल की. वह फ्रांसीसी समाचार पत्र ‘ला पॉपुलेयर ‘ के संस्थापक और संपादक भी थे और फ्रांस के प्रमुख समाजवादी नेताओं में से एक थे.
हेग में सावरकर के लिए अपनी दलील में उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार सावरकर को इसलिए निशाना बना रही है क्योंकि वे भारत को आजाद करवाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले रहे हैं.
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उन्होंने सावरकर का वर्णन इन शब्दों में किया, ‘श्रीमान ! सावरकर ने कम उम्र से ही, राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया. उनके दो भाइयों, जो उनसे कम क्रांतिकारी नहीं थे, को इस राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेने के लिए सजा सुनाई गई, एक को आजीवन कारावास और दूसरे को कई महीनों तक कारावास की सजा सुनाई गई. 22 साल की उम्र से, जब वह बंबई विश्वविद्यालय में कानून के छात्र थे, वे तिलक के सहायक बन गए और लगभग उसी समय, अपने पैतृक शहर, नासिक में उन्होंने ‘मित्र मेला’ नाम की राष्ट्रवादी संस्था का गठन किया.’
मित्रमेला के बारे में भी लोंगुएट ने बताया कि किस प्रकार पूरे दक्खन में राष्ट्रीय आंदोलन चलाने में यह संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहा था.
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सावरकर की पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर ‘ जिस पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था, उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस पुस्तक की वैज्ञानिक दृष्टि अत्यंत मूल्यवान है और इसका अंग्रेजी अनुवाद कई लोगों ने मिलकर किया और उसे अज्ञात नाम से प्रकाशित किया.‘
लोंगुएट की दलीलों का सार यही था कि सावरकर एक भारतीय क्रांतिकारी व प्रबुद्ध विचारक हैं और भारत को आजाद करवाने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार उनके पीछे पड़ी है.
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लोंगुएट की दलीलों से इतना तो साफ होता है कि मार्क्स का पोता होने तथा समाजवादी होने के बावजूद उन्हें सावरकर की राष्ट्रवादी अवधारणा से कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि लोंगुएट के लिए तो वह प्रशंसा के पात्र थे. ऐसे में भारत के मार्क्सवादियों द्वारा सावरकर के व्यक्तित्व व कर्तृत्व का विरोध कितना तर्कसंगत है?

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