संतान सप्तमी 2021: आज (13 सितंबर) संतान सप्तमी (Santan Saptami) का व्रत है। यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रखा जाता है। इस दिन माता पार्वती और भगवान शिव की पूजा का विधान है। इस व्रत को संतान की प्राप्ति, उसकी खुशहाली और समृद्धि के लिए किया जाता है। इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करें और साफ-सुथरे कपड़े पहने। इसके बाद व्रत करने का संकल्प लें। निराहार रहकर ही पूजा के लिए प्रसाद इत्यादि बनाए। इसके लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए बनाए। फिर दोपहर के समय भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा अर्चना करें।
जानिए क्या है पूजा विधि
व्रत के दिन पूजा हेतु सबसे पहले चौकी सजा लें। फिर नारियल के पत्तों या फिर आम के पत्तों के सात कलश को स्थापित कर लें। शिव और पार्वती को चौकी पर स्थापित करें। इसके पश्चात दीपक जलाए। संतान की उन्नति या फिर प्राप्ति की कामना करते हुए माता पार्वती और शिव की पूजा करें। भगवान को स्नान आदि करा लें और उन्हें वस्त्र धारण कराए। फिर हल्दी कुंकुम से तिलक लगाए। माता पार्वती को सिंदूर लगाकर पुष्प चढ़ाए। धूप दिखाए। प्रसाद अर्पित करें। फिर हवन और आरती करें। इसके बाद संतान की रक्षा और उन्नति के लिए प्रार्थना करते हुए भगवान शिव को कलावा अर्पित करें।
जानिए कैसे खोलें व्रत
आपको बता दें कि पूजा के वक्त सूती का डोरा या फिर चांदी की संतान सप्तमी की चूड़ी हाथ में अवश्य पहननी चाहिए। इस दिन संतान सप्तमी की कथा जरूर पढ़ें या सुनें। व्रत खोलने के लिए पहले भगवान को भोग लगाएं। फिर पूजन में चढ़ाई गई मीठी सात पूरी या पुए से अपना व्रत खोलें।
यह है संतान सप्तमी व्रत कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक, एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए। मेरे माता-पिता देवकी व वसुदेव ने उनकी खूब सेवा की। ऋषि ने कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें संतान सप्तमी व्रत करने को कहा और व्रत कथा बताई। इसके अनुसार, नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा हुआ करता था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में विष्णुदत्त नामक ब्राह्मण भी रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी व रूपवती में घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रहीं थीं। उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक पूजन किया। फिर रानी चंद्रमुखी व रूपवती ने उनसे पूजन का नाम व विधि पूछी।
उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है। उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया और दोनों ने ही शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया। घर पहुंचने के बाद वे दोनों संकल्प भूल गईं. फलत: मृत्यु पश्चात रानी वानरी व ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं। कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुन: मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी व रूपवती ने फिर ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी व ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ और इस जन्म में भी दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। व्रत भूलने की वजह से रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित ही रहीं। किंतु भूषणा ने व्रत को याद रखा, इसलिए उसके गर्भ से आठ सुन्दर व स्वस्थ पुत्रों ने जन्म लिया।
इधर, रानी ईश्वरी के पुत्र शोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गईं। उसे देखते ही रानी के मन में ईष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने की कोशिश की, लेकिन बालक नहीं मरे। उसने भूषणा को बुलाया और उसे सारी बात बताई और फिर उससेे क्षमायाचना करके पूछा- क्या कारण है कि तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए। फिर भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण करवाई और कहा कि उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी मार नहीं पाई। यह सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा। फिर व्रत के प्रभाव से रानी पुन: गर्भवती हो गईं और उसने भी एक बहुत ही सुंदर से बालक को जन्म दिया।
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