छत्तीसगढ़ में भी एक तबके की ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी कहानी, नंदकुमार साय ने कहा- ग्रामीणों को मूल स्थान में बसाया जाए
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद से सोशल मीडिया और चौराहों पर कश्मीर में हुई ज्यादती पर काफी चर्चा चल रही है। लेकिन छत्तीसगढ़ में भी एक तबका एक ऐसे ही दर्द से गुजर चुका है। जिस प्रकार कश्मीर में आतंकवादियों के आतंक से परेशान होकर पंडितों ने अपनी जमीन अपने गांव छोड़ दिए, उसी प्रकार छत्तीसगढ़ के बस्तर के कई जिलों में नक्सलियों के नक्सलवाद से तंग आकर ग्रामीणों ने अपने गांव घर छोड़ दिए थे। अब सर्व आदिवासी समाज द्वारा उन ग्रामीणों को फिर से बसाने की मांग की जा रही है।
छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जिलों से आदिवासी समुदाय के लोग सोमवार को राजधानी रायपुर पहुंचे। वे यहां विरोध प्रदर्शन करते हुए विधानसभा घेरने के लिए निकले। इनमें आदिवासी समुदाय के प्रमुख नेताओं में से सोहन पोटाई, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता नंदकुमार साय भी शामिल थे। बताया जा रहा है कि ये सभी अपनी 23 सूत्रीय मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।
नेता नंदकुमार साय ने कहा कि छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के कारण हुआ पलायन भी कश्मीरी हिंदुओं जैसा ही है। यहां नक्सलियों का अत्याचार बढ़ा, तो गोलियां चलीं, इसमें कई लोग मारे भी गए। इसलिए लोग अपने गांव छोड़कर दूसरी जगह चले गए। वे वहां बहुत बुरी हालत में रहने को मजबूर हो गए हैं। हम चाहते हैं कि उन्हें फिर से बसाने की दिशा में काम किया जाए।
आगे उन्होंने कहा कि हमारी यह रैली विरोध प्रदर्शन इस बात की शुरुआत है। जो ग्रामीणों का मूल स्थान था वहां उनको वापस लाना चाहिए। इस मामले में पूरी जांच होनी चाहिए। लोगों की जानकारियां जुटानी चाहिए। उनकी जीवन स्थिति को सुधारने का काम किया जाना चाहिए। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है, इस वजह से आदिवासी समाज सड़कों पर उतरा है और अब उनकी आवाज उठा रहा है।
जानिए क्या है सलवा जुडूम
सलवा जुडूम बस्तर की बोली का शब्द होता है। जिसका मतलब है ‘शांति का कारवां’। नक्सली हमले में मारे गए कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को सलवा जुडूम का जनक माना जाता है। जब छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की वारदातें बढ़ने लगी थी तो महेंद्र कर्मा ने सलवा जुडूम की शुरुआत 2005 में की थी। महेंद्र कर्मा ने सलवा जुडूम के द्वारा नक्सलियों को उन्हीं की भाषा में सबक सिखाने की तैयारी की। 5 जुलाई 2011 को सलवा जुडूम को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला सुनाया गया।
सलवा जुडूम अभियान से जुड़कर नक्सलियों के खिलाफ जिन भी ग्रामीणों ने मोर्चा लिया था वे सभी ग्रामीण नक्सलियों के दुश्मन बन चुके थे। जब यह अभियान बंद कर दिया गया तो ग्रामीणों के सामने नक्सलियों द्वारा मारे जाने का खतरा था। यहां तक कि कुछ गांव वाले निर्दोष होते हुए भी नक्सलियों के साथ फंस गए।
इस वजह से बहुत से ग्रामीणों ने अपना घर जमीन गांव छोड़ दिया। वे सरकारी कैंपों में रहने लगे या फिर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की ओर पलायन कर गए। उसी तरह जैसे कश्मीर में जब आतंकवादियों ने अपना आतंक बढ़ाया तो पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा। इसके बाद वे छत्तीसगढ़ से तेलंगाना के जंगली इलाकों में जा बसे। आदिवासियों पर अब वहां का प्रशासन अवैध कब्जे या अतिक्रमण की कार्रवाई करता रहता है। इस वजह से सर्व आदिवासी समाज उन्हें दोबारा अपने ही गांव में स्थापित करने की मांग उठा रहा है।
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