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50 सालों से रही अदिवासियों की मांग हुई पूरी, अलग धर्म का मिलेगा दर्जा

लंबे समय से आदिवासियों की रही मांग अब पूरी होती हुई नजर आ रही है दरअसल इसे एक मांग और 50 साल तक उसके लिए इंतजार कह सकते हैं। बीते 11 नवंबर को आदिवासियों के अलग धर्मकोड बनाने की मांग को एक मजबूत बल मिला, जब झारखंड विधानसभा ने ‘सरना आदिवासी धर्मकोड बिल’ पास कर दिया। सीएम हेमंत सोरेन ने इसके लिए एक दिन के विशेष सत्र का आयोजन किया था।

पहले इस बिल का नाम ‘सरना या आदिवासी धर्मकोड बिल’ रखा गया था। लेकिन विपक्ष की आपत्ति के बाद इसे ‘सरना आदिवासी धर्मकोड बिल’ रख दिया गया। मंजूरी के लिए इसे अब केंद्र सरकार के पास भेज दिया गया है। संविधान के मुताबिक धर्म के मामले में कानून बनाने का अधिकार केंद्र के पास और उसे मंजूरी देने का अधिकार केवल राष्ट्रपति के पास है।

झारखण्ड विधानसभा के विशेष सत्र में सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव पारित होने के पश्चात आज आवास में सरना समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात हुई।

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ऐसे में सवाल उठता है कि प्रकृति की पूजा करने वाले आदिवासियों को धर्म की जरूरत क्यों आन पड़ी?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद जैसे हिन्दूवादी संगठन आदिवासियों के धर्मांतरण का आरोप ईसाइयों पर लगाते रहे हैं। वहीं ईसाई संगठन इसको सिरे से खारिज करते रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि आदिवासियों का लगभग सभी धर्मों में धर्मांतरण हुआ है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 है। यह देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं।

2018 में सूचना का अधिकार कानून के तहत अधिवक्ता दिप्ती होरो को झारखंड सरकार के गृह विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक झारखंड में 86 लाख से अधिक आदिवासी हैं। इसमें सरना धर्म मानने वालों की संख्या 40,12,622 है। वहीं 32,45,856 आदिवासी हिन्दू धर्म मानते हैं। ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या 13,38,175 है। इसी तरह से मुस्लिम 18,107, बौद्ध 2,946, सिख 984, जैन 381 आदिवासी इन धर्मों को मानने वाले हैं। वहीं 25,971 आदिवासी ऐसे हैं जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं।

दूसरी बात यह है कि जब विभिन्न जनजातियों के सही आंकड़े ही नहीं मिल पा रहे, भला ऐसे में आरक्षण, नौकरी, बजट आदि में इनको जगह कहां से मिल पाएगी?

पारित बिल में जिस ‘सरना’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, आखिर वह क्या है?

सरना मतलब संवारना होता है- मानवता को, मनुष्यता को, आत्मा का परमात्मा से मिलन करवाना। सरना धर्म पर ‘कुरुख ग्रंथ’ किताब लिखने वाले और राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो प्रवीण उरांव कहते हैं, “सभी आदिवासी गांवों में जो पूजा स्थल होता है उसे सरना स्थल कहते हैं। वहां मुख्यतः सखुआ पेड़ की पूजा करते हैं। या फिर किसी अन्य पेड़ की भी पूजा वहां होती है। इसी पूजा स्थल को हो देशावली, संताल में जाहेर थान, उरांव में चाला टोंका भी कहते हैं।

वह आगे कहते हैं, “धर्म मानने के लिए किसी को तो आधार मानना होगा न, तो हम सरना स्थल को आधार मान, सरना धर्म की बात करते हैं। जानकारी के मुताबिक सरना शब्द सबसे अधिक 1965 में सबसे अधिक चर्चा में आई। कार्तिक उरांव, भिखराम भगत, तेजबहादुर भगत, राम भगत, एतो उरांव जैसे लोगों ने इसका खूब प्रचार किया है।”

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जब आदिवासियों में धर्मगुरू का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है, उसमें बंधन तिग्गा धर्मगुरू की पदवी कैसे पा गए?

सरना समाज में ‘पाहन पुजारी’ और ‘परहा राजा’ जैसे पदों की व्यवस्था है। पाहन पुजारी पूजा कराने का काम करते हैं, जबकि परहा राजा शासन व्यवस्था का जिम्मा संभालते हैं।

पत्रकार केरलोनियुस मिंज कहते हैं, ”ऐसी व्यवस्था सभी आदिवासियों में है। यानी उरांव, मुंडा, संताल सभी जनजातियों में ऐसी शासन व्यवस्था है, इसे आदिवासी स्वशासन भी कहा जाता है। आदिवासियों में हिन्दू, ईसाई या मुसलमानों की तरह धर्मगुरू का कॉन्सेप्ट नहीं है। लेकिन बीते कुछ सालों में सरना धर्म प्रचारक बंधन तिग्गा को लोग धर्मगुरू कहने लगे हैं। लेकिन वह पाहन पुजारी नहीं है, वह धर्मा प्रचारक और राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के प्रमुख हैं।”

बंधन तिग्गा से पहले भी धर्म प्रचारक सरना समाज में हुए हैं। समाज को एकजुट रखने या फिर कह सकते हैं कि अन्य धर्मों के प्रभाव में आकर सरना धर्मावलंबियों ने झंडा, प्रार्थना, धार्मिक सभा पर अब जोर देने लगे हैं।

सन 1871 से 1951 तक आदिवासियों के लिए जनगणना में अलग धर्म कॉलम था, तो इसे खत्म क्यों किया गया? पहली संविधान सभा ने भारत के संविधान से आदिवासी शब्द ही हटा दिया था। लेखक अश्विनी पंकज की लिखी किताब ‘शून्यकाल में आदिवासी’ में एक प्रसंग का जिक्र किया गया है। जिसके मुताबिक, दो दिसंबर 1948 को इसी मसले पर संविधान सभा में हुई बहस के दौरान तत्कालीन सांसद जयपाल सिंह मुंडा ने ‘आदिवासी’ शब्द की जगह ‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द लिखे जाने का जोरदार विरोध किया था। उन्होंने सवाल किया कि बिना ट्राइबल सब कमेटियों के रिपोर्ट और अनुसंशा के ही फैसले लिए जा रहे हैं।

जवाब में डॉ बीआर अंबेडकर ने कहा कि अनुसूचित जनजाति शब्द आदिवासियों को एक निश्चित अर्थ में विश्लेषित करता है। वहीं आदिवासी शब्द एक सामान्य पद है। वह अछूत की तरह कोई विधि सम्मत अर्थ नहीं रखता। आदिवासी कौन है, यह सवाल निश्चित तौर पर प्रासंगित है, लेकिन इसके परिभाषित करना होगा। जाहिर है, जब आदिवासी शब्द ही नहीं, तो फिर जनगणना में स्थान कैसा?

तब से अब तक आदिवासियों को अलग धर्म कॉलम क्यों नहीं दिया गया?

जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के पूर्व सहायक निदेशक सोमा मुंडा के मुताबिक, झारखंड के पूर्व मंत्री देवकुमार धान के नेतृत्व में अलग सरना कोड की मांग को लेकर साल 2015 में एक धरना दिया गया। इसके बाद प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को मांगपत्र सौंपा। जिसके जवाब में भारत के महारजिस्ट्रार कार्यालय से 20 नवंबर 2015 को एक पत्र आया। उसमें कहा गया कि साल 2011 की जनगणना में हमें 100 से अधिक जनजातीय धर्मों की जानकारी मिली थी। उसमें 50 से अधिक तो झारखंड में ही थे। ऐसे में सरना को अलग धर्म की मान्यता देने पर अन्य धर्मों से भी इसकी मांग उठेगी। इसलिए इस मांग को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

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झारखंड विधानसभा से कोड पास होने के बाद अब आगे क्या?
आदिवासियों के मामले में किसी भी निर्णय लेने के लिए राज्यों में ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) का गठन किया गया है। झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने कहा है कि झारखंड टीएसी की अध्यक्षता में देशभर के टीएसी के सदस्यों, आदिवासी समाज के प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक नेताओं को एक मंच पर लाया जाएगा। इसके बाद इस धर्मकोड बिल पर चर्चा और फिर सहमति की गुंजाईश बनाई जाएगी। फिर दूसरे राज्यों से कहा जाएगा कि वह भी अपने विधानसभा में बिल पास कर केंद्र सरकार के पास भेजे ताकि केंद्र पर इस बात का दवाब बने कि आगामी जनगणना में आदिवासियों को अलग धर्म कॉलम मिले।

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